दुष्कृति विधि उपभोक्ता

प्रश्न. 2 : अपकृत्य विधि में त्रुटि तथा बिना त्रुटि के दायित्व को समझाइये।

उत्तर- त्रुटि
सामान्यतया अपकृत्य विधि में दायित्व प्रतिवादी के दोषपूर्ण कार्य से वादी को पहुंची हानि के लिए होता है, चाहे कार्य को उसने किसी भी हेतु अथवा आशय से किया है किन्तु कुछ मामलों में दायित्व इरादा या उपेक्षा से किए गए कार्यों के अतिरिक्त भी उत्पन्न होता है अर्थात् त्रुटि के बिना भी दायित्व उत्पन्न होता है। ऐसे मामलों को कठोर दायित्व या पूर्ण दायित्व के मामले कहते हैं। उदाहरण के लिए अपलेख के मामले में दायित्व मानहानिकर्ता के इरादे पर आधारित नहीं होता है बल्कि मानहानिकारक कथन के प्रभाव पर आधारित होता है। ऐसे मामलों में दायित्व कठोर या पूर्ण होता है । जैसे-जंगली पशुओं द्वारा की गई क्षति या प्रतिवादी की भूमि पर एकत्र खतरनाक वस्तुओं के पलायन से होने वाली क्षति ।

जैसा कि पहले कहा गया है अपकृत्य विधि के अधीन 'विधि अधिकारों के उल्लंघन किये बिना' यदि किसी व्यक्ति को क्षति पहुंचायी जाती है तो कोई दायित्व उत्पन्न नहीं होता है, चाहे वह कार्य इरादे से या अनुचित हेतु से ही क्यों न किया गया हो। ऐसा भी देखा जाता है कि मानसिक तत्व जैसे-हेतु, इरादा, आशय और उपेक्षा आदि के साथ यदि कोई कार्य या लोप मिल जाते हैं तो दायित्व के उत्पन्न करने में उनकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अपकृत्य पूर्ण दायित्व के ऐसे मामलों में ‘त्रुटि' का तत्व मौजूद रहता है।

बिना त्रुटि के दायित्व

कुछ मामले ऐसे होते हैं जहां बिना त्रुटि के अपकृत्यपूर्ण दायित्व उत्पन्न होता है जिसे कठोर दायित्व या पूर्ण दायित्व कहते हैं। रेलेंड बनाम फ्लेचर के मामले में प्रतिपादित कठोर दायित्व का सिद्धांत इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस मामले में यह नियम प्रतिपादित किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी भूमि पर कोई खतरनाक वस्तु इकट्ठा करता है तो उसके पलायन के परिणामस्वरूप होने वाले प्रत्यक्ष परिणामों के लिए वह दायी होगा चाहे वह उपेक्षावान न भी रहा हो। दूसरा, उदाहरण एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ के मामले में प्रतिपादित सिद्धांत है जिसमें यह कहा गया है कि यदि किसी संकटपूर्ण या स्वभाव से खतरनाक क्रियाकलापों में लगा है तो उस कार्य से उत्पन्न होने वाली हानि के लिए कठोर या पूर्ण दायित्व होता है। तीसरा, उदाहरण स्वामी का अपने सेवक के द्वारा सेवा के अनुक्रम में किये गये अपकृत्यों के लिए होता है। चौथा, वर्तमान काल में ऐसे अनेक कर्तव्य या दायित्व हैं जो नियोक्ताओं पर अधिनियमिति द्वारा आरोपित किये जाते हैं जैसे, कारखाना, अधिनियम, कर्मकार प्रतिकर । अधिनियम जिनमें त्रुटि का तत्व अनुपस्थित रहता है, फिर भी वे दायी ठहराये जाते हैं।

वर्तमान समय में मोटर दुर्घटनाओं में हुई अत्यधिक वृद्धि को ध्यान में रखते हुए"बिना त्रुटि के दायित्व" के सिद्धांत के आधार पर पीड़ित व्यक्ति और उनके आश्रितों को कुछ प्रतिकर तत्काल देने के उद्देश्य से संबंधित विधि में प्रावधान किये जाने की धारणा का जन्म हुआ है। यह पीड़ित व्यक्ति को त्रुटि के आधार पर साधारण विधि के अधीन प्रतिकर पाने के अधिकार को प्रभावित नहीं करता है। भारत में भी संसद ने मूल मोटर यान (अधिनियम) 1939 को 1982 में संशोधन करके “बिना त्रुटि के दायित्व” के सिद्धांत को मान्यता प्रदान की है। ऐसे दायित्व को कठोर दायित्व कहा जाता है जिसमें प्रतिवादी बिना किसी त्रुटि के वादी को हुई क्षति के लिए दायी होता है। इस प्रकार एक ओर ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें इरादे से की जानेवाली क्षति भी वाद योग्य नहीं होती है और दूसरी ओर ऐसी परिस्थितियां होती हैं जहां प्रतिवादी के ऊपर बिना त्रुटि के दायित्व अधिरोपित किया जाता है। संभवत: इन दोनों अतिवादी सिद्धांतों के बीच एक ऐसा क्षेत्र है जहां इरादा, उपेक्षा और आशय के रूप में त्रुटि अपकृत्यकर्ता के ऊपर दायित्व अधिरोपित करने के लिए आवश्यक होती है। अपकृत्य विधि में अधिकांशतः दायित्व इन्हीं दोनों के बीच की परिस्थितियों में लागू होता है और प्रतिवादी द्वारा वादी को पहंचायी गई ऐसी क्षति होती है जो कार्य या लोप के कारण होती है जो क्षति का प्रत्यक्ष परिणाम होती है, जिसे वह युक्तियुक्त सावधानी बरत कर बचा सकता है।

सामंड का यह मत है कि "त्रुटि ही सभी अपकृत्यपूर्ण दायित्व का आधार है” । किन्तु कई विद्वान सामंड के इस मत से सहमत नहीं हैं। कठोर दायित्व के मामलों को छोड़ कर क्षति नुकसानी या हानि के अनुपात में प्रदान करने का नियम त्रुटि पर आधारित नहीं होता है। उदाहरण के लिए कभी-कभी थोड़ी सी उपेक्षा के फलस्वरूप वादी को भारी क्षति पहुंच सकती है और प्रतिवादी को उसके लिए एक बड़ी रकम उसके लिए प्रतिकर के रूप में देना पड़ सकता है। जबकि ऐसे मामले भी होते हैं जिसमें भारी उपेक्षा के कारण मामूली क्षति होती है जिसके लिए प्रतिवादी को केवल प्रतीकात्मक नुकसानी देना पड़ता है। इसके अतिरिक्त संकट या दायित्व को उठाने के लिए वैकल्पिक और अनिवार्य जीवन बीमा के प्रावधानों के अस्तित्व के कारण प्रतिकर प्रदान करने के प्रतिरोधक तत्व भी कम हो जाते हैं।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि त्रुटि का अपकृत्यपूर्ण दायित्व में कोई महत्व नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि बिना त्रुटि के दायित्व और कठोर दायित्व दोनों अतिवादी दृष्टिकोणों के अतिरिक्त एक बहुत बड़ा क्षेत्र है जहां इरादा, उपेक्षा और आशय के रूप में त्रुटि दायित्व निर्धारित करने के लिए एक आवश्यक तत्व होता है।

यद्यपि खतरे और दायित्व से बचने के लिए बीमा कराने का चलन बढ़ रहा है किन्तु इसका क्षेत्र अभी बहुत सीमित है और यह केवल मोटर यान के प्रयोग से उत्पन्न होने वाली दुर्घटनाओं के संबंध में ही अनिवार्य है। यह सभी प्रकार के खतरों और दायित्वों के मामलों में अनिवार्य नहीं हैं और न ही उदाहरणात्मक नुकसानी दिलाने का कोई प्रावधान किया गया है जिससे प्रतिवादी अपकृत्यपूर्ण कार्य के दुहराने से भयभीत हो। इस प्रकार की विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए यदि कोई सामान्य नियम हो सकता है तो वह है लोक नीति, न कि त्रुटि, जिसके आधार पर न्यायालय और विधान मंडल बढ़ते हुए समाज की आवश्यकताओं को देखते हुए नए अधिकारों और कर्तव्यों को मान्यता देने के लिए बाध्य करता है। जब लोक नीति सामाजिक न्याय अथवा अन्य विचारों से प्रभावित होती है और यह आश्यक मानती है कि वादी को त्रुटि के बिना भी प्रतिकर प्रदान करना चाहिए तो ऐसे मामलों में विधि कठोर दायित्व के सिद्धांत को मान्यता प्रदान करती है और जहां इस प्रकार के विचार नहीं हैं लोक नीति यह अपेक्षा करती है कि प्रतिवादी को दुर्घटना से होने वाली हानि जिसे वह बचा नहीं सकता था, के लिए प्रतिकर देने के लिए दायी नहीं ठहराया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में,ऐसे मामलों में विधि “त्रुटि के सिद्धांत” पर दायित्व का प्रावधान करती है।


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