Zoology प्राणीशास्त्र

प्रश्न 136 : मत्स्य पालन पर निबन्ध लिखिए।

उत्तर- मत्स्य पालन (Fish culture)- मछली प्रारम्भिक समय से ही मनुष्य के भोजन के रूप में उपयोग की जाती रही है। इनका शिकार भी उद्देश्य से किया जाता है। इसी की दृष्टि में रखकर मछली पालन प्रारम्भ किया गया है। पहले मनुष्य के सामने यह समस्या रही कि किस प्रकार मछलियों की संख्या बढ़ायी जाए तथा उन्हें किस प्रकार जलाशयों में सुरक्षित रखा जाये।

भारत में सबसे पहले मत्स्य पालन पश्चिम बंगाल में शुरू हुआ। लेकिन अब बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव के कारण चीन, इण्डोनेशिया, वियतनाम, अफ्रीका, कम्बोडिया, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा भारत में मत्स्य पालन तेजी से बढ़ रहा है।

मत्स्य पालन का (Aims of Fish Culture)

(i) मत्स्य पालन का सर्वप्रमुख उद्देश्य मछलियों के उत्पादन में वृद्धि करना है। इन्हें उथले जल में पाला जाता है, इसीलिए इनका यहाँ से पकड़ना सरल कार्य होता है।

(ii) स्वादिष्ट एवं अधिक पौष्टिक मछली के माँस की प्राप्ति के प्रयास करना।

(iii) मत्स्य उद्योग के अन्य उपउत्पादों (byproducts) की प्राप्ति करना।

(iv) कृत्रिम खाद्य सामग्री से मछलियों का विकास एवं वृद्धि तीव्र गति से होती है।

पालन योग्य मछलियों के लक्षण (Characters of Culturable Fishes) -

मत्स्य पालन का सर्वप्रमुख उद्देश्य मछली की अधिकतम प्राप्ति है। अत: इस कार्यक्रम को आरम्भ करने से पूर्व मछलियों के विषय में व्यापक जानकारी होनी चाहिए। पालन योग्य मछलियों में निम्न गुण होने चाहिए

(i) मछलियों में प्राकृतिक भोजन ग्रहण करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए।

(ii) ये कृत्रिम भोजन ग्रहण करने में भी निपुण होनी चाहिए।

(iii) वृद्धि के लिए भोजन की अल्प मात्रा में आवश्यकता होनी चाहिए।

(iv) उनका स्वभाव शाकाहारी होना चाहिए।

(v) जलाशय में अन्य मछलियों के साथ रहने की योग्यता होनी । चाहिए।

(vi) रोग प्रतिरोध क्षमता अच्छी होनी चाहिए।

(vii) प्रजनन क्षमता (prolific breeder) अधिकतम होनी चाहिए।

(viii) स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होनी चाहिए।

भारत में मत्स्य पालन (Fish Culture in India) - प्रत्येक जाति की मछली में पालन योग्य मछली के सभी गुण पाए जाते हैं लेकिन फिर भी मछलियों की कुछ जातियाँ मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त हैं। इन जातियों में से मुख्य कार्य पालन योग्य सर्वप्रमुख मछली मानी जाती है, जिसमें निम्न गुण मिलते हैं

(i) प्राणी प्लवक एवं पादपप्लवक (Zoo & Phytoplankton), सड़ी-गली समुद्री घास, कूड़ा व जलीय पादपों का भक्षण करती हैं।

(ii) कार्प कुछ अधिक तापमान तथा प्रदूषित जल में भी जीवित रह सकती है।

(iii) कार्प जल में घुलनशील ऑक्सीजन की कमी को भी सरलता से सह सकती है।

(iv) कार्प को एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरलता से ले जाया जा सकता है।

(v) इनका मांस स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। मछलीपालन झीलों नदियों, बाँधों, तालाबों एवं पोखरों में किया जाता है। मछली फार्म वृहत् मात्रा में मछलीपालन के लिए निर्मित किए जाते हैं।

मछली पालन निम्न चरणों में सम्पन्न किया जाता है-

1. ताल या कुंड में तैयार करना (Preparation of tanks)- प्रजनन काल से लगभग 30 दिन पहले अवांछित जलीय पौधे तथा जन्तुओं को अलग के लिये प्रत्येक वर्ष ताल खाली कर सुखा लिया जाता है। इसके बाद तालों को स्वच्छ जल से भरा जाता है। इस जल में गाय का गोबर या तनु मल जल (sewage water) मिलाया जाता है, जो प्लवक (plankton) की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषण प्रदान करता है। प्लवकों द्वारा प्राथमिक प्रकाश संश्लेषण उत्पादन का मात्र कुछ भाग ही मछलियों के जैव भार में वृद्धि के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

वैकल्पिक रूप में चूना (lime) तथा खाद मिलायी जाती है। इस प्रकार से तैयार ताल में मछलियों के प्राकृत भोजन वाले प्लवक (पादप एवं जन्तु प्लवक) पनपेंगे तथा कुछ ही समय में ताल का जल हरा नजर आने लगेगा। यह इस बात का घोतक है कि ताल में मछलियों के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध है।

2. जलांडक का संग्रह (Collection of spawn)— सामान्य कार्प (carps) लेबिया (Labeo), कटला (Catla), सिर्साइना (Cirrhina) आदि परिरुद्ध जल (confined water) में प्रजनन नहीं करती है। उपर्युक्त प्रकार की मछलियाँ नदी के किनारे निमग्न भूमि (submerged land) के छिछले जल में अण्डे देती हैं।

नदी के किनारे इस प्रकार स्थिति प्राकृतिक प्रजनन स्थनों से प्रत्येक वर्ष अण्डों तथा वनस्फुटिक लार्वा को एक विशेष प्रकार का जाल जिसे 'बेंची जाल' (Benchi Jal) कहते हैं, में इकट्ठा किया जाता है। इस प्रकार किये गए लार्वा को स्फुटन गर्त (hatching pit) में स्थानान्तरित किया जाता है।

3. स्फुटन गर्त में स्थानान्तरण (Transfer in hatching pit)- स्फुटन गर्त दो प्रकार के होते हैं

(i) स्फुटन शाला (Hatchery) एवं

(ii) स्फुटन हेपा (Hatching happ)।

(ii) स्फुटन शाला छोटे आकार के ताल होते हैं, जिनमें निषेचित अंडों को स्थानान्तरित किया जाता है। निषेचित अंडे 2-15 घंटों के बाद स्फुटित होते हैं ।

(i) स्फुटन हेपा 3x1.5x1 फिट के आकार के मच्छरदानी (mosquito net) के कपड़े के बने आयताकार द्रोणिका संरचना युक्त ताल होते हैं, जिन्हें नदी में बांस के खंभों की सहायता से गाड़ा जाता है। इस प्रकार के बने हुए हेपा में जल के निरन्तर प्रवाह से स्वच्छ वायु अंडों को मिलती है। स्फुटनों को 36-48 घंटों के लिए इन्हीं हेपा में रहने दिया जाता है। तत्पश्चात् नर्सरी में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।

4. नवजात मछलियों का नर्सरी ताल संवर्धन कुंड में परिवहन (Transportation of fish-fry to nursery ponds)- इकट्ठा करके नर्सरी में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। इन्हें मिट्टी की बनी हांडियों या धातु के आक्सीजन सहित सील बंद पात्रों में जल की एक निश्चित मात्रा के साथ एक निश्चित समय तक रखा जाता है।

5. नवजात मछलियों का संवर्धन कुंड में रखना (Keeping of fishfry in nursery ponds)- संवर्धन कुंड में लाई गई नवजात मछलियाँ बहुत नाजुक होती हैं इसलिए इन्हें बहुत सावधानी से यहाँ रखा जाता है। यहाँ नवजात मछलियों को बड़े आकार की मछलियों से बचा कर रखा जाता है। यहाँ इन्हें लगभग एक सप्ताह तक रखा जाता है। जब इनकी लम्बाई एक इंच के लगभग होती है तब पालन-पोषण ताल में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।

6. पालन-पोषण ताल में रखना (Keeping in rearing tank)- पालन-पोषण ताल को लंबाई में बनाया जाता है, जिससे पाली जा रही मछलियों को तैरने के लिए अधिक स्थान उपलब्ध हों। मछलियों को यहाँ 4-6 महीनों तक रखा जाता है। जब मछलियों की लंबाई लगभग 20 सेमी. हो जाती है तब इनको संग्रहण-ताल में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।


चित्र- मछली पालन के चरण

7. संग्रहण-ताल में स्थानान्तरण (Transfer in stocking pond)- अब इन मछलियों को पालन-पोषण ताल से निकाल कर संग्रहण-ताल में ले जाया जाता है।

भौतिक आघात से बचाने के लिए इसकी दीवारें फ्रेम की बनाई जाती हैं। इस प्रकार सभी सावधानियाँ रखते हुए इन्हें संग्रहण-ताल तक ले जाया जाता है।

8. मछलियों का संग्रहण- ताल में रखना (Keeping of fishes in stocking ponds)- मछलियों को संग्रहण-ताल में स्थानान्तरित करने से पहले ताल की सफाई की जाती है तथा परभक्षी मछलियों को यहाँ से हटा दिया जाता है। यहाँ मछलियों को तब तक रखा जाता है, जब तक कि ये बाजार में बेचने के लायक नहीं हो जाती हैं।

जब मछलियाँ अपनी वृहत्तम आकार तथा वजन ग्रहण कर लेती हैं। तब इन्हें पकड़ कर बाजार में बेच दिया जाता है।

मछलियों का परिरक्षण (Preservation of Fish) - मछलियों के परिरक्षण की निम्न विधियाँ हैं –

(1) प्रशीतन (Refrigeration) - प्रशीतन का प्रमुख उद्देश्य मछली को 0°C पर संरक्षित रखना होता है जिससे मात्र कुछ समय के लिए उसको सड़ने से रोका जा सकता है। इस कार्य के लिए मछली को बर्फ की एक के बाद एक तह लगाकर बन्द बर्तन में रख देते हैं तथा तापमान 0°C पर रखा जाता है। बड़ी मछलियों की आहारनाल निकालकर वहाँ बर्फ भर दी जाती है।

(2) हिमीभूत कर सुखाना (Freeze drying) - यह महँगी तथा जटिल प्रक्रिया है, अतः केवल अच्छी श्रेणी की मछलियाँ ही इस विधि द्वारा परिरक्षित होती हैं। पहले मछलियों को हिमीभूत करके फिर उनको ऊर्ध्वपातन (sblimation) द्वारा सुखाते हैं। इस विधि में बर्फ पिघले बिना ही वाष्प में परिवर्तित हो जाती है।

(3) गहन हिमीकरण (Deep-freezing)- इसमें मछलियों को अच्छी तरह से धोकर, लम्बी अवधि के लिए -18°C पर रखा जाता है। ताली मछली का ही गहन हिमीकरण किया जाता है। हिमीकरण से पूर्व मछली के सिर वाले भाग को काट देते हैं। आहारनली निकालकर मछली को अच्छी तरह धो लेते हैं। इस विधि द्वारा मछली को लम्बी अवधि के लिए सुरक्षित रखते हैं।

(4) स्मोकिंग (Smoking) - लकड़ी को जला कर धुआँ के द्वारा मछलियाँ रक्षित की जाती है।

(5) सन क्योरिंग (Sun curing) - इस विधि में मछली के शरीर को अधर सतह से खोल कर इसकी आहार नाल व क्लोम बाहर निकाल दिये जाते हैं और नमक द्वारा परिरक्षित किया जाता है।

मछलीपालन में सावधानियाँ- मत्स्यपालकों को मछलीपालन करते समय निम्नलिखित सावधानियाँ ध्यान में रखनी चाहिए-

(1) जीरे का संचय जलाशय में प्रात:काल में ही करना चाहिये।

(2) तालाब की सफाई नियमित अन्तराल में करनी चाहिये। इसमें से अनुपयोगी वनस्पतियाँ एवं बेकार हानि पहुँचाने वाली मछलियाँ समयसमय पर निकाल कर अलग कर देनी चाहिए।

(3) रोगी मछली को बाहर निकाल कर नष्ट कर देना चाहिये।

(4) मछलियों को दिया जाने वाला आहार उनके लिये रुचिकर होना चाहिये।

(5) निश्चित अंतराल में परिवर्तित होने वाली मछलियों की जाँच करनी चाहिये जिससे उनमें होने वाली बीमारियों का पता चल सके तथा उनका उपचार भी करना चाहिये।

नियंत्रण (Control) –

(अ) कीटों को कीटनाशक पदार्थों का छिड़काव करके नष्ट करते हैं।

(ब) मकड़ों को आर्गनो फॉस्फोरस यौगिक (organophosphorous compounds) तथा DNOC preparations का स्प्रे करके नष्ट करते हैं।'

(स) क्रैब्स को हाथ में पकड़कर या ट्रैप द्वारा नष्ट करते हैं। इनके बिलों में पके हुए चावलों को 50% DDT में मिलाकर रखने पर ये मर जाते

(ii) पक्षी (Birds) - चिड़ियाँ, तोते, कबूतर व कौए आदि फलों, बीजों आदि को खाकर नष्ट कर देते हैं

(अ) इस प्रकार के पक्षियों को पकड़कर मार देना चाहिए तथा घोंसलों में दिए अण्डों को नष्ट कर देना चाहिए।

(ब) पक्षियों को शोरगुल करके या मृत पक्षियों को दिखाकर भी दूर किया जा सकता है।

(स) Arsenic, phophorus तथा strychine द्वारा इनके खाने की वस्तुओं को विषैला बनाकर भी इन्हें नष्ट कर सकते हैं।

पक्षी कीटों का शिकार करके इनकी संख्या को नियंत्रित रखते हैं। अत: यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पक्षियों से होने वाली क्षति को रोकने वाले उपायों का कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

(iii) स्तनी (Mammals) - चूहे आदि कुंतक खेतों, खलिहानों व भण्डार में रखे खाद्यान्नों व अन्य पदार्थों को खाकर नष्ट करते हैं। इसके अतिरिक्त ये मनुष्य व पालतू जानवरों में अनेक प्रकार के रोग फैलाते हैं।

(vi) मौलस्क (Molluscs)- इस वर्ग के स्नेल व स्लग भी पौधों के पीड़क हैं। पौधों को जीभ से खुरचकर नष्ट कर देते हैं। ये कोमल पत्तियों, पौधे, कोमल छाल व गिरे हुए फलों को खाकर नष्ट करते हैं।

(IV) नाशक कीटों का यान्त्रिक नियन्त्रण (Mechanical control) - ऐसे क्रिया-कलाप जो नाशक कीटों को यान्त्रिक क्रियाओं मात्र या किसी उपकरण विशेष की सहायता से मारने में उपयोग होते हैं, यान्त्रिक नियन्त्रण के उपाय कहलाते हैं। ये उपाय मनुष्य के श्रम लगने के कारण महँगे होते हैं तथा बड़े पैमाने पर इनसे कीट नियन्त्रित करना अत्यन्त ही कठिन है। इन उपायों में हाथ जालों का प्रयोग हाथ से बीनना, जार एकत्रीकरण (jarring), पीटना व हुक का प्रयोग (beating and hooking), छानना तथा फटकना (sieving and winnowing), यान्त्रिक रूप से निकालना (imechanical exclusion) तथा यान्त्रिक फंदे हैं।

(1) हाथ के जाल तथा थैला जाल (Hand-nets and Bagnets)- इसके अन्तर्गत पाइरिला (pyrilla) का जब संक्रमण होता है और यह मक्का से ईख में स्थानान्तरित होता है उस समय हाथ के जाल व थैलों का प्रयोग बहुत उपयुक्त होता है। यह उपाय चावल के कीड़े, टिड्डे व कद्दू की लाल कीड़ी के लिए भी प्रभावकारी होता है।

(2) हाथ से बीनना (Hand picking) - इस प्रकार का उपाय सबसे प्राचीन यान्त्रिक उपाय है और उन स्थानों पर अधिक उपयोग किया जाता है जहाँ श्रम सस्ता है। खेतों में नाशक कीट तभी आसानी से बीने जा सकते हैं जब उन तक आसानी से पहुँचा जा सके, बड़े आकार के हों आसानी से दिखने वाले हों, सुस्त हों, अधिक जनसंख्या में हों तथा निश्चित भाग में ही प्राप्त होते हों। यह उपाय नींबू की तितली के अण्डे समूहों तथा वयस्कों, सरसों की आरा मक्खी-एथैलिया ल्यूगेन्स प्रोक्सिमा (Sawfly Athalia lunges proxima) के ग्रब तथा एपीलैक्ना (Epilachana) जातियों के विकास की सभी अवस्थाओं को बीनने के लिए उपयोग किया जाता है।

(3) जार एकत्रीकरण (Jarring) - टिड्डी व दूसरे पत्ती झड़ने वाले बीटलों के नियन्त्रण हेतु ठण्डे मौसम में सुबह ही वृक्षों को झकझोर दिया जाता है तथा नाशक कीटों को मिट्टी का तेल मिले पानी भरे जारों में इकट्ठा कर लिया जाता है।

(4) पीटना व हुक से हँसाना (Beating and hooking) - इससे टिड़ियों को काँटेदार झाड़ियों की सहायता से व घरेलू मक्खियों को मक्खिमार की सहायता से नष्ट किया जाता है। गेंडा बीटल (Rhinoceros Beetle) को नारियल के वृक्ष को छेदों से पकड़ा जा सकता है।


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