Zoology प्राणीशास्त्र

प्रश्न 103 : निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।

(a) मृदा प्रदषण

(b) वन्य जीव संरक्षण।

उत्तर- (a) मृदा प्रदूषण- प्रदूषित वायु एवं जल का संयुक्त प्रभाव मृदा प्रदूषण पर पड़ता है। मृदा प्रदूषण का कारण मृदा में विभिन्न प्रकार के रसायनों का मिलना है। मृदा प्रदूषण के निम्न कारक हैं

1. घरेलू व शहरी व्यर्थ (Domestic and Municipal Waste)– घरों से प्रतिदिन ठोस व तरल कचरा निकलता है। यह कचरा अत्यन्त विविध प्रकृति का होता है। इनमें से कुछ खतरनाक किस्म का होता है। यह कचरा शहरी स्तर पर शहरी व्यर्थ (municipal waste) कहलाता है। इस कचरे में निम्न प्रकार का सामग्री शामिल होती है, जो मृदा को प्रदूषित करती है।

(i) छपा हुआ कागज जिसकी स्याही में PCB जैसे खतरनाक रसायन शामिल होते हैं।

(ii) कार्बन पेपर व कार्बन लैसकॉपी पेपर, टाइप व DMP प्रिन्टर के सूखे रिबन ।

(ii) ड्राई सेल, निकल-कैडमियम सैल, लीथियम सैल Ni-Mh सेल आदि। इनके खोल गलने से इनका रसायन भूमि में मुक्त हो जाता है या फिर जानबूझकर इन इन्हें कबाड़ी को बेचने के लिए खोला जाता है।

(iv) विभिन्न प्रकार के पदार्थों से बनी व छपी विभिन्न मोटाई की थैलियां (पॉलीथीन बैग)। इनमें से बहुत अनुपयुक्त विधि से पुन: चक्रित (recycled) होती हैं अत: इनमें घातक रसायन होते हैं।

(v) विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक के सामान व थर्मोकोल जैसे अजैव अपघटनीय (nonbiodegradable) सामग्री।

(vi) रसायन जो आमतौर पर प्लास्टिक, धातु या काँच की बोतलों में होता है तथा कालातीत (expiry date) हो जाने के कारण, त्रुटिवश या अन्य कारणों से कूड़े में डाला हो जाता है। इसमें कीटनाशक, दीमकनाशी, मच्छर प्रतिरोधी, दवाइयां (सिरप, टैबलेट, कैप्सूल, ट्यूब, पाउड़र), नेल पॉलिश, लिपस्टिक, पेन्ट रिमूवर, पेन्ट, थिनर, वार्निश, तारपीन, खाद्य तेल, डिटर्जेन्ट, साबुन, बर्तन धोने का पाउडर, माउथवाश, टूथपेस्ट, बॉड़ी स्प्रे आदि होते हैं।

(vii) घर निर्माण सामग्री व तोड़- फोड़ का मलबा जैसे फर्श या पत्थर की घिसाई से निकला व्यर्थ कन्क्रीट, पत्थर, लोहा, काँच आदि।

(viii) ड्राई क्लीनिंग में काम आने वाले रसायनों जैसे-ऐसिटोन, ट्राइक्लोरोइथाइलीन, फॉर्मेल्डिहाइड आदि।

(ix) चीनी मिट्टी या सिरेमिक के बर्तन।

शहरी व्यर्थ पदार्थों को जहाँ ठिकाने लगाया जाता है (dump or disposal site, land fill) वहाँ की मृदा को तो यह भौतिक व रासायनिक रूप से खराब करता ही है साथ ही वर्षा के जल के साथ अन्य क्षेत्रों को तथा लीचिंग के द्वारा भूजल को भी हानि पहुँचाता है।

2. जैव-चिकित्सकीय व्यर्थ (Biomedical Waste)- क्लीनिकों, अस्पतालों, जाँच केन्द्रों आदि से एक अलग प्रकार का कूड़ा निकलता है। इनसे निम्न प्रकार की सामग्री होती है जो कि मृदा को प्रदूषित करती है

(i) रोगी के अंग, खून व अन्य जाँच के लिए प्रादर्श (sample)।

(ii) संक्रमित सामग्री, जैसे-कॉटन, पट्टियाँ, सुइयाँ, सिरिंज, प्लास्टर, ऑपरेशन के समय काम आए दस्तानें आदि।

(iii) पैकिंग सामग्री (जैसे-बॉटल, डब्बे, जार)।

(iv) दवाइयाँ व अन्य रसायन जिनमें सामान्य व रेड़ियो सक्रिय रसायन होते हैं।

3. औद्योगिक व्यर्थ (Industrial Waste)- लघु व वृहत् उद्योगों से नाना प्रकार के प्रदूषक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इनमें अहानिकारक से लेकर अत्यन्त हानिकारक सभी प्रकार के पदार्थ शामिल होते हैं।

कारखानों से अनगिनत अपशिष्ट व व्यर्थ पदार्थ निकलते हैं जो मृदा को प्रदूषित करते हैं -

(i) थर्मल पावर प्लान्ट या तापीय विद्युत संयंत्र से कोयला जलने से उत्पन्न एक प्रकार की धूल (dust) जो जमीन पर जमा हो जाती है या खनिज शोधन कारखानों से निकला धुआँ जिसकी धूल में जिंक, कैडमियम, लैड या मर्करी होता है।

(ii) रसायन का उपयोग करने वाले कारखानों से निकले रसायन अनेक बार दुर्घटनावश ये बड़ी मात्रा में मोचित हो जाते हैं। सामान्य प्रक्रिया में भी बहुत-सी मात्रा व्यर्थ जाती है तथा शेष व्यर्थ उत्पाद की तरह पर्यावरण तक पहुँचती है।

(iii) ग्रेनाइट, मार्बल व अन्य पत्थरों के संसाधन से उत्पन्न स्लरी (slurry) व धूल।

(iv) रंगाई-छपाई कारखानों से निकला व्यर्थ जिसमें घातक रसायन होते हैं।

(v) बैटरी के कारखानों से निकला एसिड व लैड।

(vi) डेयरी जिससे निकले व्यर्थ में कार्बनिक पदार्थ होने के कारण इसकी BOD बहुत अधिक होती है।

(vii) अनेक बार औद्योगिक रसायन परिवहन के दौरान दुर्घटना होने से या परिवहन टैंकरों के लीकेज होने से भी मृदा तक पहुँचते हैं।

(viii) चमड़ा कारखानों (tannaries) से निकला व्यर्थ चमड़े के संसाधन में अनेक तरह के रसायन शामिल होते हैं जिनमें क्रोमियम का उपयोग किया जाता है।

4. परिवहन व तत्सम्बन्धित व्यर्थ (Automobile and Related waste)-

(i) परिवहन वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है। यह बड़ी मात्रा में मृदा प्रदूषण का कारण भी बनता है, क्योंकि प्रदूषित वायु से घुलनशील गैसों का बहुत-सा भाग जलपात के साथ जमीन पर आता है। इसके निलम्बित कण (SPM = Suspended Particulate Matters) या श्वसन योग्य एस.पी.एम. (Respirable SPM or RSPM) भी मृदा तक पहुँचते हैं।

(ii) पेट्रोल में एन्टीनॉकिंग एजेन्ट के रूप में जो पदार्थ मिलाए जाते हैं, उनसे भी प्रदूषण होता है। उदाहरणार्थ, पेट्रोल में सीसायुक्त टेल (Tetraethyl lead) मिलाने से लैड़ का प्रदूषण होता हो मृदा को दूषित करता है।

(iii) शहरों में फैले हुए पैट्रोल पम्पों का पेट्रोल जमीन में बनाए गए टैंकरों में भरा जाता है। अनेक बार इनसे यह ईंधन लीक करता है और मृदा से चला जाता है। इसमें बेन्जीन, इथाइल बेन्जीन, टाल्यूइन, जायलीन, एल्केल, एल्कीन, एम.टी.बी.ई. जैसे हानिकारक रसायन होते हैं।

5. कृषि-व्यर्थ व रसायन (Agricultural Chemicals and Wastes)– दुनिया की पृथ्वी का एक बड़ा भाग खेतों से ढका है, जिसका उपयोग मानव के उपयोग के लिए भोजन व अन्य उत्पाद उत्पन्न करने में किया जाता है। इस भूमि पर रसायन उर्वरक व विभिन्न प्रकार के नाशक रसायन ‘toxic chemicals' कीटों, घोंघों, चूहों, खरपतवार, कृमियों आदि को मारने के लिए डाले जाते हैं। इस नाशी रसायनों (pesticides) में से अधिकांश की आयु लम्बी होती है तथा वे पादपों, मृदा व जीवों में शामिल होकर भी नष्ट या परिवर्तित नहीं होते हैं। इनमें से कुछ यदि अपघटित होते भी हैं तो अपने मूल रसायन की तुलना में अधिक घातक उत्पाद बनाते हैं। सीधे खेतों पर छिड़के जाने के कारण ये रासायनिक उर्वरक व नाशी रसायन मृदा को प्रदूषित करते हैं।

मृदा प्रदूषण के प्रभाव मृदा प्रदूषण के प्रभाव निम्न हैं-

1. पारितंत्र पर प्रभाव- मृदा के प्रदूषण से पारितंत्र प्रभावित होता है। इसके निम्न कारण हैं-

(i) मृदा के प्रदूषण से इसके जीवजात (biota) पर दुष्प्रभाव पड़ता है। बहुत कम मात्रा के प्रदूषक भी मृदा के सूक्ष्म जीवों के उपापचय में परिवर्तन लाते हैं, साथ ही अनेक सूक्ष्म उपयोगी जीवों को समाप्त कर देते हैं। मृदा के बैक्टीरिया मृदा में नाइट्रीकरण, विनाइट्रीकरण, नाइट्रोजन स्थिरीकरण, मृत पदार्थों या अपघटन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं, अतः इनके समाप्त होने से, घनत्व कम होने से या इनके उपापचय में परिवर्तन होने से मृदा की उर्वरता प्रभावित होती है।

(ii) मृदा की विशेषताओं व वातावरण से स्थानीय पादपजात (flora) नियत होता है। मृदा में प्रदूषकों का मेल इसकी रासायनिक गुणवत्ता को परिवर्तित कर देता है। वायु प्रदूषण करने वाली गैसें जलपात के साथ मृदा में आकर उसे अम्लीय बना देती हैं। मृदा के अम्लीकरण (acidification) के कारण इसकी गुणवत्ता दुष्प्रभावित होती है।

(iii) कम मात्रा के प्रदूषक मृदा व वनस्पतियों के माध्यम से उच्चस्थ शिकारियों तक पहुँचते-पहुँचते मात्रा में आवर्धित होते चले जाते हैं। DDT के प्रयोग से संक्रमित हुई मृदा पर पनपने वाले पौधे, कीट, कृमि, सभी DDT की मात्रा धारित करते हैं। इन्हें खाने वाले उपभोक्ता खाद्य श्रृंखला में इस रसायन का जैव आवर्धन करते हैं। इसके परिणाम से शिकारी पक्षियों के प्रजनन व नीड़न व्यवहार में अन्तर आता है।

(iv) प्रदूषक रसायन पादपों के उपापचय को भी प्रभावित करते हैं। जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन (Crop yield) में कमी आती है।

(v) स्लरी व डस्ट अपने रासायनिक प्रभावों के अलावा भी प्रभावित मृदा के कृषि कार्य के लिए अनुपयुक्त बनाती है।

2. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव (Effect on Human Health)- मृदा के प्रदूषण से मानव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इसके निम्न कारण-

(i) मृदा के प्रदूषण से उस पर आने वाले खाद्य पदार्थों में प्रदूषक अवशोषित कर लिए जाते हैं जहाँ से मानव शरीर तक पहुँचते हैं।

(ii) मृदा का प्रदूषक पदार्थ लीचिंग के द्वारा भूजल में जा मिलता है। जिसका उपयोग पीने व सिंचाई के लिए करने पर प्रदूषक मनुष्य या इसके खान-पान की सामग्री तक पहुँच जाते हैं।

(iii) लोग अनेक अवसरों पर सीधे मृदा के सम्पर्क में आते हैं। स्कूलों के बच्चे, खिलाड़ी, बागवान, मजदूर, कृषक आदि मृदा के सीधे सम्पर्क में आते हैं जिससे ये मृदा संदूषण का शिकार हो जाते हैं।

(iv) प्रदूषक मृदा में शामिल होने के बाद वर्षा या नदियों के प्रवाह के साथ जलाशयों तक पहुँचते हैं जहाँ से यदि पेय जल वितरित किया जाता हो। तो यह प्रदूषण मानव तक पहुँचता है। इस पानी से सिंचित वनस्पतियाँ पुनः प्रदूषित होंगी तथा इससे पकड़ी गई मछलियाँ भी प्रदूषित होंगी।

मृदा के प्रदूषण के मानव स्वास्थ्य पर निम्न प्रभाव हो सकते हैं -

(i) अनेक रसायन जैसे क्रोमियम, अनेक कीटनाशक व खरपतवारनाशी रसायन, रंग कैन्वसरजन होते हैं। इनके लम्बे संसर्ग से कैन्सर उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणार्थ, बैन्जीन का सतत् उद्भासन रक्त कैन्सर उत्पन्न करता है।

(ii) आर्गेनोफास्फेट प्रकार के कीटनाशक तन्त्रिका पेशीय अवरोधन (neuro-muscular blockage) करती हैं।

(iii) मृदा से मनुष्य तक पहुँचे रसायन सिर दर्द, मितली, थकान, चिड़चिड़ाहट, आँखों में जलन व त्वचीय घाव उत्पन्न करते हैं।

(iv) लैड बच्चों के लिए विशेष रूप से घातक है तथा इनके शारीरिक, तन्त्रिकातन्त्र व मस्तिष्क के विकास को दुष्प्रभावित करता है। वयस्कों में यह वृक्कों को क्षति पहुँचाता है।

(v) पारद व साइक्लोडाइन मृदा के माध्यम से मनुष्य तक पहुँच कर वृक्कों को क्षतिग्रस्त करते हैं।

(vi) पी.सी.बी. व साइक्लोडाइन यकृत को क्षति पहुँचाते हैं।

(b) वन्य जीव संरक्षण- वन्य जीव एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है। जन साधारण के लिए वन्य जीव का अर्थ घने जंगलों व जल में पाये जाने वाले क्रूर व हिंसक जन्तु, जैसे-शेर, चीता, हाथी, भेड़िये, गेंडा व जल में रहने वाली शार्क, घड़ियाल व मगर आदि कुछ वन्य जीव ऐसे हैं जिनको विलुप्त होने से बचाने के लिए राष्ट्रीय पार्को में संरक्षण दिया गया है।

वन्य जीव संरक्षण- वन्य जीवों का संरक्षण तीन प्रमुख उद्देश्यों पर आधारित है-

1. विश्व के जीवों में आनुवांशिकी पदार्थ की वर्तमान श्रृंखला को बनाये रखना।

2. जाति का मानव हित के लिए विवेकपूर्ण उपयोग ताकि पारितंत्र विक्षोभित न होने पाये।

3. जीवन को समर्थन देने वाले तंत्रों व आवश्यक पारिस्थितिकी प्रक्रियाओं को बनाये रखना।

वन्य जीवों को सुरक्षित रखने व उनकी आबादी को बढ़ाने के उपाय चार मूल आधारों पर आधारित हैं -

1. कानूनों, नियमों व प्रतिबंधों द्वारा वन जीवों के अनावश्यक आखेट, अनावश्यक वृक्ष विनाश को रोककर प्रजननी जीवों (breeding stock) की संख्या में वृद्धि की जावे।।

2. उनके प्राकृतिक आवासों को और अधिक अनुकूल बनाया जावे।

3. आखेट हेतु सीमित क्षेत्र में उनकी आबादी को बढ़ने दिया जावे।

4. प्रजननी जीवों की आबादी बढ़ाने हेतु उन्हें कृत्रिम मानव निर्मित संरक्षण दिया जावे।

वन्य पशु संहार का प्रमुख कारण मनोरंजनार्थ उनका शिकार अथवा उनके दांत, खाल, मांस या पैरों के लिए उनका संहार करना है। परिणामतः विश्व में विभिन्न देशों से कई सौ पशु जातियाँ विलुप्त हो गयी हैं।

सन् 1800 के प्रारम्भ में यूरोपवासियों के अमेरिका में पहुँचने से पूर्व वहाँ यात्री कबूतरों (Traveller pigeons) की संख्या लगभग 20 लाख (2 बिलियन) थी। इनके उड़ते हुए बहुत-से झुण्डों की चौड़ाई 1 मील व लम्बाई 200 मील होती थी। यूरोप प्रवासियों ने उन्हें मनोरंजन व मांस के लिए अपना निशाना बनाया। परिणामतः सन् 1898 में इनकी संख्या मात्र 200 थी और सन् 1914 में इनकी जाति ही विलुप्त हो गयी। विगत सौ वर्षों में विलुप्त होने वाले पक्षियों में अमेरिकी सुनहरी ईगल, सफेद चोंच वाला वुडपेकर, जंगली टर्की हूपिंग क्रेन, टेम्पेटर हंस आदि कुछ प्रमुख हैं।

वन वृक्षों की योजनाविहीन कटाई अनेक पक्षियों के आवास व अण्डों को नष्ट करती हैं। स्थलचर जन्तुओं को आवास व सुरक्षा नहीं मिल पाती। उद्योग संस्थानों से निकला विषाक्त जल, नदियों में मिल जाने पर एक साथ ही बड़ी संख्या में मछलियों व अन्य छोटे जीवों को मार देता है। जीवों की अनेक जातियाँ विलुप्त प्रायः हैं। इन्हें संरक्षित कर इनकी आबादी बढ़ाने के प्रयास किये जा रहे हैं। सफेद शेर, हाथी, दरियाई घोड़ा, कस्तूरी मृग, श्वेत मृग, अब भारत के दुर्लभ जीव हैं। मस्क बैल, ग्रिजली रीछ, समुद्री ऑटर व नीली ह्वेल विलुप्त होने के कगार पर हैं। मोर व पश्चिमी राजस्थान में बस्टर्ड (गोडावण) पक्षी कम होते जा रहे हैं। मोर को राष्ट्रीय पक्षी बना संरक्षित कर दिया है।

शेर, चीते, भेड़िये आदि मांसाहारी जन्तुओं के विनाश से खरगोश, हिरण आदि शाकाहारी जन्तुओं की आबादी बहुत बढ़ जाती है। वन क्षेत्रों में उन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता और भूख से बड़ी संख्या में मर जाते हैं या फिर निकटवर्ती फसलों व उद्यानों को व फलों को खा जाते हैं। पक्षियों के शिकार से उनके आहार-कीटों की आबादी बढ़ती है और उनका आक्रमण फसली पौधों व फल उद्यानों पर होता है। जीवों में रोगों का प्रसार भी शीघ्रता से होता है। हम जीव संरक्षण इसलिए नहीं करते हैं इनमें हमें मांस, चर्म या अन्य उत्पाद प्राप्त होता है। जीव संरक्षण उनके जीवन यापन के अनजाने पहलुओं को ज्ञात करने के लिए किये गये हैं। प्रत्येक जीव, खाद्य जाल की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है जिस पर कि पारिस्थितिकी संतुलन निर्भर करता है। जब जीव की कोई जाति विलुप्त हो जाती है तो हम सदैव के लिए सजीव जगत् के एक अंश को खो देते हैं। सन् 1952 में भारत में वन्य जीव मण्डल' की स्थापना हुई। आखेट पर प्रतिबंध लगे।

लगभग सभी प्रांतों में वन्य जीव शरणस्थल बने। प्रवासी पक्षियों की सुरक्षा हेतु अन्तर्राष्ट्रीय नियम बनें।

संरक्षण हेतु प्रयास– भारत सरकार ने वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1887 से लागू किया। स्वतंत्रता के पश्चात् वर्ष 1952 में भारत सरकार ने वन्य जीवन संरक्षण हेतु भारतीय वन्य जीवन बोर्ड (IBWL) की स्थापना की और उसके द्वारा उनकी सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय पार्क, वन्य अभयारण्य आदि स्थापित किये गये। विश्व स्तर पर वन्य जीवों के संरक्षण हेतु यूरोप के सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा वर्ल्ड वाईल्ड फण्ड (WWF) की स्थापना की गई।

वन्य जीव (सुरक्षा) अधिनियम (1972) में संशोधित किया गया। इसके अनुसार उन प्रजातियों के व्यापार व शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया गया है जिनका अस्तित्व खतरे में है तथा उनसे प्राप्त चीजों के व्यापार पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। भारत में बाघों की गिरती आबादी को दृष्टि में रखकर उनके संरक्षण के उद्देश्य से IBWL की संस्तुति पर अप्रैल, 1973 से बाघ परियोजना (Project tiger) का शुभारम्भ (कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान से) किया गया और सारे देश में 28,017 वर्ग किमी. क्षेत्र के अन्दर 14 राज्यों में 18 बाघ सुरक्षित क्षेत्र बनाये गये हैं। वर्ष 1989 तक देश में 67 राष्ट्रीय उद्यान तथा 394 अभयारण्य स्थापित किये गये जो 1,41,298 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले हुए है। देश में 13 प्रमुख चिड़ियाघर हैं। मैसूर के चिड़ियाघर में सबसे अधिक 87 प्रजातियों के 518 वन्य जीव रहते हैं। दुर्लभ प्राणियों की खालों के अवैध व्यापार को रोकने के लिए भारत ने 1976 में कन्वेन्शन ऑफ इंटरनेशनल ट्रेड इन एन्डेंजर्ड स्पीशीज ऑफ वाइल्ड फोना एण्ड फ्लोरा समझौते पर हस्ताक्षर किये और इसी के आधार पर 1976 में सांपों की कच्ची खालों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा था।

वन्य जीवों के संरक्षण की विधियाँ- वन्य जीव एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है। जन साधारण के लिए वन्य जीव का अर्थ घने जंगलों व जल में पाये जाने वाले क्रूर व हिंसक जन्तु जैसे- शेर, चीता, हाथी, भेड़िये, गेंडा व जल में रहने वाली शार्क, घड़ियाल व मगर आदि वन्य जीव ऐसे हैं। जिनको विलुप्त होने से बचाने के लिए राष्ट्रीय पार्को में संरक्षण दिया गया है।

वन्य जीवों के संरक्षण की दो प्रमुख विधियाँ निम्न हैं –

1. स्वस्थाने संरक्षण (In Situ Conservation)- इसके अन्तर्गत जीव जन्तुओं तथा पौधों का संरक्षण उनके प्राकृतिक वासों में ही मानव निर्मित कृत्रिम पारिस्थितिकी तंत्र का यथोचित प्रबन्ध करके किया जाता है। संरक्षण की यह विधि अधिक उपादेय है। इसी उद्देश्य से अनेक क्षेत्रों को कानून द्वारा सुरक्षित क्षेत्र (protected areas) घोषित किया जाता है। राष्ट्रीय उद्यान (National park), अभयारण्य (Sanctuaries) जैवमण्डल आरक्षित क्षेत्र (Biosphere Reserves) प्राकृतिक स्मारक (Natural monuments) आदि इसी उद्देश्य से बनाये गये हैं।

2. उत्स्थाने संरक्षण (Ex situ Conservation)- जीवों को उनके मूल स्थान से हटाकर अन्यत्र संरक्षण प्रदान करने की इस विधि को उत्स्थाने संरक्षण कहा जाता है। इसी उद्देश्य से आनुवांशिक संसाधन केन्द्र (Genetic Resources Centres) जन्तु उद्यान (Zoological parks), वनस्पति उद्यान (Botanical Gardens) की स्थापना की जाती है। जीन बैंक (Gene Banks) की अवधारणा भी इसी पर आधारित है। हमारे देश में भी राष्ट्रीय पादप आनुवांशिकी संसाधन केन्द्र (National Bureau of Plant Genetic Resources) की स्थापना इसी दृष्टि से की गई है।


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