व्यष्टि अर्थशास्त्र

प्रश्न : 10 अर्थशास्त्र की किस परिभाषा को आप सर्वोत्तम मानते हैं ? कारण बताइए।

उत्तर- किसी शास्त्र की परिभाषा उसकी विषय-सामग्री पर निर्भर करती है तथा विषय सामग्री में परिवर्तन के साथ-साथ बदलती रहती है। अर्थशास्त्र का जन्म 1776 में एडम स्मिथ की प्रसिद्ध कृति 'An Enquiry into the Nature and Causes of Wealth of Nations' के प्रकाशन के समय से माना जाता है। एडम स्मिथ ने अर्थशास्त्र को राष्ट्रों की संपत्ति के स्वरूप एवं कारणों की खोज' के रूप में परिभाषित किया। प्रो. वॉकर, जे.बी. से, जे.एस. मिल सरीखे अर्थशास्त्रियों ने एडम स्मिथ की विचारधारा का अनुसरण करते हुए अर्थशास्त्र को ‘धन के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया। अर्थशास्त्र को स्वार्थ की शिक्षा देने वाला शास्त्र समझा जाने लगा तथा रस्किन और कार्लाइल सरीखे विद्वानों ने अर्थशास्त्र एवं अर्थशास्त्रियों की तीव्र भर्त्सना की। इन आलोचनाओं से अर्थशास्त्र को बचाने का कार्य प्रो. मार्शल और उनके पीग, कैनन और बेवरिज सरीखे अनुयाइयों ने किया । इन विद्वानों ने मनुष्य और उसके भौतिक कल्याण' को अर्थशास्त्र के अध्ययन का प्रमुख विषय बताया तथा 'धन' को अर्थशास्त्र के अध्ययन का गौण विषय माना। प्रो. मार्शल और उनके शिष्यों ने अर्थशास्त्र को ‘भौतिक कल्याण के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया । अर्थशास्त्र की ‘कल्याण-केन्द्रित परिभाषा' एक लंबे समय तक स्वीकार की जाती रही । लेकिन 1932 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'An Essay (on the Nature and Significance of Economics' में प्रो. रॉबिन्स ने मार्शल की परिभाषा की तार्किक असंगतियों का उल्लेख करते हुए, एक नये आधार पर आर्थिक-विज्ञान की रचना की । प्रो. रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र को ‘दुर्लभता-विज्ञान' अथवा 'साधनों के वितरण का शास्त्र के रूप में परिभाषित किया।

किसी शास्त्र की परिभाषा को एक शहर के चारों ओर खींची गई उस दीवार के सदृश्य माना जा सकता है, जो शहर के मौजूदा समग्र को घेरे होती है । अमुक शहर के विकास के साथ ही साथ उसके चारों ओर खींची गई दीवार में परिवर्तन करना अनिवार्य होता है, जिससे कि यह दीवार नई परिस्थितियों के अंतर्गत शहर के समग्र को घेर सके। अर्थशास्त्र के जन्म से लेकर आज तक इसकी विषय-सामग्री का निरंतर विकास होता गया है। इसलिए अर्थशास्त्र की परिभाषा भी समय-समय पर परिवर्तित एवं विकसित होती गई है। प्रारंभ में अर्थशास्त्र ‘धन का विज्ञान था क्योंकि अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ और उनके अनुयाइयों द्वारा दी गई परिभाषाएं ‘धन-केन्द्रित थीं । अर्थशास्त्र के विकास के साथ ही साथ आगे चलकर यह ‘कल्याण के शास्त्र के रूप में उदय हुआ। मार्शल और उनके अनुयाइयों द्वारा दी गई अर्थशास्त्र की परिभाषाएं ‘कल्याण-केन्द्रित थीं । जब अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री और अधिक विकसित हुई, तब इसे ‘सीमित साधनों के वितरण का शास्त्र' कहा जाने लगा। प्रो. रॉबिन्स और उनके अनुयाइयों द्वारा दी गई अर्थशास्त्र की परिभाषाएं ‘दुर्लभता केन्द्रित थीं। 1936 में जे.एम. कीन्स की पुस्तक ‘जनरल थ्योरी' के प्रकाशन के बाद अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री को और अधिक विकास हुआ तथा ‘राष्ट्रीय आय एवं रोजगार का सिद्धांत' अर्थशास्त्र का अभिन्न एवं महत्वपूर्ण अंग बन गया। हाल ही के वर्षों में (विशेषकर-द्वितीय महायुद्ध के पश्चात) आर्थिक वृद्धि अथवा आर्थिक विकास का सिद्धांत' अर्थशास्त्र की एक अत्यंत महत्वपूर्ण शाखा बन गया है। चूंकि प्रो. रॉबिन्स की परिभाषा में ‘कीन्सवादी अर्थशास्त्र' (जो इस बात का अध्ययन करता है कि राष्ट्रीय आय एवं रोजगार के स्तर कैसे निर्धारित होते हैं) तथा विकास के अर्थशास्त्र’ (जो यह बताता है कि एक अर्थव्यवस्था कैसे विकसित होती है तथा राष्ट्रीय आय एवं अर्थव्यवस्था की उत्पादक-क्षमता में कौन से तत्व वृद्धि लाते हैं) का समावेश नहीं था। इसलिए अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करने की दृष्टि से रॉबिन्स की परिभाषा अपर्याप्त सिद्ध हो गई। नई परिस्थितियों में अर्थशास्त्र की विकास-केन्द्रित’ परिभाषा आवश्यक बन गई।

अर्थशास्त्र की आधुनिक (या सर्वोत्तम) परिभाषा- प्रो. रॉबिन्स ने साधनों को दिया हुआ (निश्चित या सीमित) मानकर केवल उनके वितरण का विवेचन किया था। रॉबिन्स के मतानुसार, अर्थशास्त्र चुनाव की समस्या' अथवा 'सीमित साधनों के वितरण का अध्ययन है। दूसरे शब्दों में, अर्थशास्त्र साध्यों (उद्देश्यों) को दिए हुए साधनों के साथ समायोजित करने की समस्या का विवेचन है। लेकिन हमारी मुख्य समस्या सीमित साधनों का वितरण (अथवा साध्यों के साथ सीमित साधनों का समायोजन) करने की नहीं है, अपितु साधनों में वृद्धि एवं विकास करने की है, जिससे कि परिवर्तनशील एवं वृद्धिशील साध्यों (आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके । वर्तमान युग में, यदि विकसित देशों के सामने मुख्य समस्यापूर्ण रोजगार के स्तर पर अर्थव्यवस्था में संतुलन बनाये रखने की है, तब अल्पविकसित देशों के सामने मुख्य समस्या विकास-प्रक्रिया को द्रुत गति प्रदान करने की है । अतः अर्थशास्त्र की एक पर्याप्त एवं संतोषप्रद परिभाषा में सीमित साधनों के वितरण के साथ ही साथ अर्थव्यवस्था में आय एवं रोजगार के, निर्धारक तत्वों तथा दीर्घकालीन विकास के निर्धारक तत्वों का अध्ययन भी सम्मिलित होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से अर्थशास्त्र को एक ऐसे सामाजिक विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो ‘स्थिरता के साथ विकास की प्राप्ति एवं अनुरक्षण के लिए साधनों के उचित प्रयोग एवं वितरण से तथा आय एवं रोजगार के निर्धारकों से संबंधित है।

प्रो. के.जी. सेठ के शब्दों में, “अर्थशास्त्र साध्यों (उद्देश्यों) के संदर्भ में, साधनों की वृद्धि एवं परिवर्तन से संबंधित मानव-व्यवहार का अध्ययन करता है।”

प्रो. सेम्युलसन के मतानुसार, “अर्थशास्त्र इस बात का अध्ययन है कि व्यक्ति और समाज, द्रव्य का प्रयोग करते हुए अथवा न करते हुए, एक समयावधि के भीतर विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए वैकल्पिक उपयोग वाले सीमित उत्पादन-साधनों के प्रयोग का चुनाव किस प्रकार करते हैं। अर्थशास्त्र इस बात का भी अध्ययन है कि समाज के विभिन्न व्यक्तियों एवं समूहों के बीच वर्तमान एवं भावी उपभोग के लिए उत्पादित वस्तुओं का वितरण किस प्रकार किया जाता है।”

इस परिभाषा में चुनाव की समस्या (विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन पर संभावी वैकल्पिक प्रयोग वाले सीमित उत्पादक-साधनों को बांटने की समस्या) को अर्थशास्त्र के अध्ययन का विषय मानते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि अमुक समस्या अमौद्रिक एवं मौद्रिक दोनों तरह की अर्थव्यवस्थाओं (समाजों) में उपस्थित होती है । परिभाषा में सम्मिलित दो वाक्यांश अर्थात् ‘एक समयावधि के भीतर वस्तुओं का उत्पादन तथा उत्पादित वस्तुओं का वर्तमान एवं भावी उपभोग के लिए वितरण' इसे 'विकास-केन्द्रित बना देते हैं। विकास-प्रक्रिया के अंतर्गत न केवल निश्चित समयावधि के भीतर उत्पादन की निर्दिष्ट मात्रा प्राप्त करना सम्मिलित होता है, अपितु भविष्य में अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता बढ़ाने के लिए वर्तमान उत्पादन (आय) के एक भाग के उपभोग का परित्याग करना भी आवश्यक होता है । स्पष्टत: सेम्युलसन की परिभाषा में स्थैतिक दृष्टिकोण के स्थान पर प्रावैगिक दृष्टिकोण को प्रधानता दी गई है। अतः इस परिभाषा को अर्थशास्त्र की सर्वोत्तम परिभाषा माना जा सकता है ।


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