Botany वनस्पति विज्ञान

प्रश्न 66 : विभिन्न जीवों के मध्य जैविक सम्बन्ध का अन्योन्य क्रियाओं का सोदाहरण वर्णन कीजिये।

उत्तर–जीवित जीवों के बीच पारस्परिक क्रियायें— पृथ्वी के समस्त जीवधारी अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे पर आधारित रहते हुए अपने पारस्परिक जैविक सम्बन्धों को बनाये रखते हैं। इन संबंधों में एक ही प्रजाति के सजीव, यदिएक दूसरे से पारस्परिक क्रिया करते हैं तो इसे अन्तरा प्रजातीय सम्बन्ध कहते हैं, लेकिन विभिन्न प्रजातियों के एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों को अन्तरजातीय सम्बन्ध कहते हैं। आधुनिक पारिस्थितिकी विज्ञानियों द्वारा विभिन्न सजीवों के मध्य पारस्परिक क्रियाओं के लिए ओडम (1971) द्वारा प्रस्तुत धनात्मक एवं ऋणात्मक दृष्टि से प्रस्तुत क्रियाओं को मान्यता प्रदान की।

(A) सजीवों के मध्य पाये जाने वाले धनात्मक सम्बन्ध– दो समष्टियों के बीच इस प्रकार के आपसी सम्बन्धों में एक या दोनों लाभान्वित होते हैं। इन पारस्परिक क्रियाओं को निम्न प्रकारों में विभेदित किया गया है ।

1. सहभजिता (Commensalism)– जब दो सजीव प्रजातियों के सदस्य एक हों तथा एक जीवधारी को लाभ होता हो लेकिन दूसरे को लाभ या हानि कुछ भी नहीं हो तो इस पारस्परिक क्रिया को सहभोजिता (Commensalism) कहते हैं। इस प्रकार की पारस्परिक क्रिया में किसी को भी हानि नहीं होती है। सहभोजिता के प्रमुख उदाहरण निम्न हैं-

(a) अधिपादप (Epiphytes)— ये विशेष प्रकार के पौधे होते हैं, जो प्रकाश, वायु एवं हवा को नमी को प्राप्त करने के लिए अन्य पौधों की शाखाओं, तनों या अन्य पादप भागों पर उगते हैं एवं जीवनयापन करते हैं। लेकिन ये स्वपोषी पौधे होते हैं, जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। अधिपादप पौधे मुख्यत: ऊष्ण-कटिबंधीय वर्षा वनों (tropical rain forests) अर्थात् नम जलवायु में पाये जाते हैं। ये अधिकांशतया आर्किडेसी (Orchidaceae), ऐरेसी (Araceae) एसक्लेपियेडेसी कुल के सदस्य होते हैं। कुछ अधिपादप सदस्यों जैसे पोथोस एवं फिलोडेन्ट्रॉन आदि में वृक्ष के तने पर अपने आपको स्थिर रखने के लिए विशेष प्रकार की जड़ें पाई जाती हैं जिनको आरोही मूल या क्लिनिंग मूल (elinging roots) कहते हैं। ये विशेष प्रकार की जड़े न केवल पौधे को सहारे से चिपका कर स्थिरता प्रदान करती हैं, अपितु ये सहारे वाले वृक्ष की छाल की सतह से अधिकतम जल की मात्रा का अवशोषण भी करती है।



चित्रः अधिपादप ऑर्किड

(b) कंठलताएँ (Lianas)— ये काष्ठीय संवहनी पौधे (Woody vascular plants) होते हैं, इनको काष्ठीय आरोही (woody climbers) भी कहा जाता है। ये आरोही पौधे मृदा में जड़ों की सहायता से स्थिर रहते हैं तथा वृक्षों, झाड़ियों आदि के सहारे लिपट कर ऊतक की ओर वृद्धि करते हैं अथवा किसी सहारे (support) के द्वारा सीधे खड़े रहते हैं, जैसे— टिनोस्पोरा (Tinospora) एवं बॉहिनिया (Bauhinia) की कुछ प्रजातियाँ। कंठलताएँ स्वपोषी पादप होते हैं। लेकिन अधिक प्रकाश एवं वायु की मात्रा प्राप्त करने के लिए ऊपर की ओर वृद्धि करते हैं।

(c) अनेक जीवाणु, कवक, शैवाल एवं कुछ अन्य सूक्ष्मजीव प्रजातियाँ विभिन्न पौधों की ऊतकों में अधिपादप या अन्त:पादप के रूप में पाये जाते हैं। जैसे कोलियोकीट शैवाल जलीय पौधों के बाहर व भीतर पाई जाती हैं।

(d) सहभोजिता के अनेक उदाहरणों के अन्तर्गत दो भागीदार सजीवों में अस्थायी सम्पर्क पाया जाता है जैसे—गिलहरी, चिड़िया, बन्दर, सांप व चूहे जैसे प्राणियों का वृक्षों से सम्बन्ध। ये प्राणी वृक्षों का उपयोग अपने आवास के तौर पर या जनन क्रिया के लिए करते हैं, लेकिन इनके कारण वृक्षों को कोई विशेष हानि नहीं पहुँचती है।

2. सहोपकारिता (Mutualism)— इस प्रकार के धनात्मक सम्बन्ध दो भिन्न प्रकार के सज़ीवों में पाये जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप दोनों सजीव लाभान्वित होते हैं, लेकिन यहाँ दोनों के जीवित रहने के लिए स्थायी रूप से एक-दूसरे के साथ जीवनयापन करना जरूरी होता है। सहोपकारिता (mutualism) की प्रायः अविकल्पी सहजीविता (obligatory symbiosis) भी कहा जाता है। इस प्रकार के सम्बन्ध दो पौधों या दो प्राणियों या पौधों एवं प्राणियों के मध्य पाया जाता है। इसके प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं

(a) फलों एवं बीजों का प्रकीर्णन (Dispersal of fruits and seeds)— यह पौधों एवं विभिन्न जन्तु प्रजातियों के बीच सहोपकारिता का एक और प्रमुख उदाहरण है। विभिन्न पादप प्रजातियों के फलों एवं बीजों के प्रकीर्णन में अनेक जन्तु जैसे— बन्दर, गिलहरी तथा पक्षी एवं कीट सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। प्रकीर्णन प्रक्रिया के अन्तर्गत विभिन्न पौधों के फल एवं बीज के अनेक माध्यमों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाये जाते हैं। विभिन्न जन्तु एवं पक्षी इन फलों व बीजों को खा लेते हैं तथा अब ये अन्य स्थान पर मल विसर्जन करते हैं तो इनके मल के साथ बीज भी बाहर निकल जाते हैं। इस प्रकार दूरस्थ स्थानों में बीजों का प्रकीर्णन हो जाता है।

जैसे-टमाटर, मिर्च, अमरूद व तम्बाकू।

(b) प्राणियों द्वारा परागण (Pollination by animals)- अनेक पौधों में सम्पन्न होने वाली परागण क्रिया में कुछ प्राणियों व कीटों, जैसे—मधुमक्खियों, तितलियों एवं शलभ (moth) तथा कुछ पक्षियों की विशेष भूमिका रहती हैं। ये मकरन्द (nectar) प्राप्त करने के लिए पुष्प पर जाते हैं तथा इसके बदले में परागकणों की एक पुष्प से दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र पर स्थानान्तरित करके परपरागगण (crosspollination) क्रिया को संभव बनाते हैं। उदाहरण के लिए एक विशेष प्रकार का शलम (moth) या पतंगा प्रोपुला युक्कासेल्ला, युक्का नामक एक बीजपत्री पादप के परागण के लिए उत्तरदायी होता है। विभिन्न पौधों के पुष्प अपने रंगों, सुगन्ध एवं मकरन्द (nectar) के माध्यम से कीटों के परागण क्रिया हेतु आकर्षित करते हैं। अनेक कुलों, जैसे—रेननकुलेसी, रुटेसी, रोजेसी, एस्कलेपियेडेसी, ऐपियेसी एवं एस्टेरेसी के पुष्पों के लिए निश्चित प्राणी या कीट ही परागण का कार्य करते हैं, जैसे-रेफ्लेसिया (Rafflesia) में माँक्ष-भक्षी मक्खी द्वारा, अंजीर में ब्लास्टोफागा (Blastophaga) वंश के कीटों द्वारा तथा काइजेलिया (Kigelia) में चमगादड़ द्वारा परागण सम्पन्न होता है।

(c) लाइकेन्स में सहजीविता (Symbiosis in Lichens)- इस पादप समूह के सदस्यों के पादप शरीरों में कवक एवं शैवाल वंश के सदस्य साथ-साथ जीवनयापन करते हैं शैवाल घटक (phycobiont) मे प्रायः नील हरित सदस्य एवं कवक घटक (comyohiont) में प्राय: एस्कोमाइसिटीज एवं बेसीडियोमाइसिटीज वर्ग के कवक सदस्य पाये जाते हैं। यहाँ शैवाल एवं कवक घटक सहजीविता (symbiosis) द्वारा एक-दूसरे से लाभान्वित होते हैं। शैवाल सदस्य प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं, जबकि कवक सूकाय द्वारा जल का अवशोषण एवं आश्रय प्रदान करने का कार्य किया जाता है। यदि लाइकेन पादप शरीर के शैवालांश (phycobiont) एवं कवकांश (mycobiont) को अलग कर दिया जाये तो दोनों ही नष्ट हो जाते हैं, अतः सुचारु रूप से जीवनयापन के लिए दोनों का साथ-साथ रहना आवश्यक है।

(d) कवक मूल गठबन्धन (Mycorrhizai association)- माइकोइजा या कवक मूल गठबन्धन में विभिन्न वृक्षों या अन्य संवहनी पौधों की भूमिगत जड़ों एवं कवक तन्तुओं के बीच जल एवं खनिज पोषण का आदान-प्रदान मिलता है। कुछ पौधों में कवक तन्तु जड़ के चारों ओर लिपट कर अपना सम्पर्क केवल जड़ की बाहरी कोशिकाओं से बनाये रखते हैं। इस प्रकार के गठनबन्ध में कवकतन्तु, परपोषी पौधे के लिए मूलरोम का कार्य करते हैं एवं जल तथा खनिज पदार्थों का अवशोषण मेजबान पौधे के लिए करते हैं।



चित्रः बाह्य पोषी कवक मूल व कवक मूलका अनुप्रस्थ काट

(e) सहजीवी-नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Symbiotic Nitrogen fiixation)— यह भी दो प्रजातियों के जीव सहजीविता का एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें दोनों ही सहभागी एक-दूसरे के द्वारा लाभान्वित होते हैं। कुछ जीवाणु वंश जैसे— राइजोबियम (Rhizobium), अपने संक्रमण द्वारा फेबेसी (fabaceae) कुल के सदस्यों की जड़ों पर ग्रन्थियाँ (nodules) उत्पन्न कर देते हैं, इनको मूल ग्रन्थियाँ (root nodules) कहते हैं। इन ग्रन्थियों में राइजोबियम को पौधे से पोषण तथा रहने के लिए आश्रय प्राप्त होता है तथा इसकी एवज में ये जीवाणु भी वायुमण्डलीय मुक्त नाइट्रोजन को नाइट्राइट्स के रूप में स्थिरीकृत करके पौधे को सुलभ नाइट्रोजन स्त्रोत के रूप में उपलब्ध करवाते हैं।

(f) अन्य प्रकार के धनात्मक सम्बन्ध (Other positive interaction) मृदा में उपस्थित चींटियाँ एवं दीमक प्रजातियाँ भी कुछ कवक प्रजातियों के साथ सहोपकारिता सम्बन्ध (mutualism) निरूपित करती हैं। इस प्रकार की पास्परिक क्रिया में दोनों ही सहभागी लाभान्वित होते हैं। दीमक व चींटियों को भोजन मिल जाता है एवं कवक जाल में खनिज पदार्थों का परिसंचरण सरलता से हो जाता है। लकड़ी को खाने वाले दीमक की आंत में ट्राइ कोनिम्फा (Triconympha) नामक प्रोटोजोअन सूक्ष्म जीव पाया जाता है, जो दीमक के लिए लकड़ी में उपस्थित सेल्यूलोज का पाचन करने का कार्य करता है एवं बदले में दीमक की आंत में आश्रय एवं भोजन प्राप्त करता है।

3. प्राक् सहभोजिता (Protocooperation)- इस प्रकार के धनात्मक सम्बन्ध में दोनों सजीव लाभान्वित होते हैं, लेकिन इस प्रकार के पारस्परिक सम्बन्ध अस्थायी होते हैं एवं दोनों भागीदारों के जीवित रहने के लिए आवश्यक नहीं है। उदाहरणार्थ, समुद्री-एनीमोन (sea anemone; Adamsia polliata), नामक जन्तु, एक अन्य बड़े जन्तु हर्मिट क्रेब (Eupagurus prideauxi) के खोल (shell) पर चिपका हुआ पाया जाता है। हर्मिट क्रेब, सी एनिमोन को भोजन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाता है, जबकि सी एनीमोन अपनी दंश कोशिकाओं (mematocytes) के द्वारा हर्मिट क्रेब को बाहरी खतरों से सुरक्षा प्रदान करता है। हर्मिट क्रेब जब भोजन कर लेता है तो शेष बचे हुए भोजन की कुछ मात्रा सी-एनीमोन को भी प्राप्त हो जाती है।

(B) सजीवों के मध्य पाये जाने वाले ऋणात्मक सम्बन्ध- जब दो जीवों के परस्पर सम्बन्ध जीवनकाल में एक अथवा दोनों जीवों को किसी भी प्रकार हानि पहुँचाते हों उन्हें ऋणात्मक अन्योन्य क्रियाएँ (negative interactions) कहते हैं।ऋणात्मक अन्योन्य क्रियाएँ प्रतिजीविता (antibiosis), शोषण (exploitation) तथा स्पर्धा (competition) तीन प्रकार की होती है :

1. शोषण (Exploitation)– आश्रय (shelter) तथा भोजन के लिए जीवन अन्य जीवों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष शोषण करते है।

(a) परजीवी (Parasite)– भोजन के लिए कुछ जीवन दूसरे जन्य जीव अथवा परपोषी (host) के ऊपर या अंदर ऊतकों में रह सकते हैं इनको परजीवी (parasite) कहते हैं। सामान्यतः परजीवी परपोषी जीव को बिना जीवन क्षति (kill) पहुँचाए पोषण कर लेते हैं। परपोषी से पूर्ण (total) अथवा आंशिक परजीवी (partial parasite) हो सकते हैं। परजीवी विशिष्ट संरचनाओं या चूषकांगों (hustosia) की सहायता से परपोषी की कोशिकाओं से भोजन ग्रहण करते हैं।

डॉ. स्तम्भ परजीवी (Stem parasite)— पूर्ण स्तम्भ परजीवी जैसे- अमरबेल (cuscuta) जड़ तथा पर्यों का अभाव होने के कारण पोषण के लिये अन्य पदार्थों पर पूर्णतया निर्भर है। इन पौधों का तना परपोषी के चारों तरफ लिपट जाता है तथा इसमें चूषकांग जड़े अपस्थानिक जड़े विकसित हो जाती है जो कि अन्ततः परपोषी के तने को भेदकर उसके संवहन तंत्र से सम्बन्ध बना लेती है। ये जड़े परपोषी के जाइलम तथा फ्लोएम से रस और कार्बनिक खाद्य प्राप्त करती है।

कुछ पादप जैसे लोरेन्थस (Loranthus) तथा विस्कम (Viscum) आंशिक स्तम्भ परजीवी (partial stem parasite) हैं। इन झाड़ीदार (bushy) पादपों में मोटी, हरी पत्तियाँ मिलती हैं। विस्कम (viscum)

अनेक फलदार पेड़ों जैसे सेब, नाशपाती तथा जंगली पेड़ों जैसे पाइनस, सिल्वर फर आदि पर मिलता है।

पत्तियाँ युग्मों (pairs) में मिलती हैं। पौधे से एक लम्बा प्राथमिक चूषकांग (primary haustorium) परपोषी तने में प्रविष्ट हो जाता है। तथा इससे द्वितीयक चूषकांग (secondary haustoria) निकलकर जाइलम से रस (sap) अवशोषित करते हैं।

(ब) मूल परजीवी (Root parasites) - स्तम्भ की तरह मूल परजीवी (root parasite) भी पूर्ण (total) तथा आंशिक (partial) दो प्रकार के होते हैं। ऑरोबैंकी (Orobanche), स्ट्राइगा (Striga), बैलेनाफोरा (Balarnophora) तथा रेफलीसिया (Rafflesia) पूर्ण मूल परजीवी (total root parasite) हैं। ये मुख्यतया सोलेनेसी (Solanaceae) तथा कुसीफेरी (Crucifereae) कुल के पौधे की जड़ों पर मिलता है। ये जड़ों से चूषकांगों (suciers) के द्वारा रस (sap) तथा भोजन (food) करते हैं। (Striga) गन्ने तथा ज्वार (Sugarcane and Sorghum) पर रैफलीसिया (Rafflesia) वाइटिस (Vitis) की जड़ों पर मिलता है।

(b) परभक्षण (Predation)— परजीवन के विपरीत परभक्षण (Predation) में जीव (परभक्षक) स्वतंत्र जीवनयापन करते हैं। ये किसी अन्य प्रजाति अथवा स्वयं को प्रजाति के छोटे तथा निर्बल जीवों का शिकार करते हैं। परभक्षक जन्तु, जन्तुओं का भक्षण करने के साथ ही इनके लार्वा तथा अण्डों को भी भोजन बनाते हैं। कुछ कवक जैसे डक्टाइला (Ductylella), आश्रोबोरिस (Arthroborys) तथा जूफेगस (Zoophaus) आदि कीटभक्षी होते हैं। ये पादप स्वपोषित (autotrophic) होते हैं किन्तु नाइट्रोजन पदार्थों के अवशोषण के लिए कीड़ों से मिलने वाले कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर रहते हैं। ये पादप नाइट्रोजन की कमी वाले आवासों में उगते हैं। ये पौधे कीटों को पकड़ने के लिए भाँति-भांति के साधन अपनाते हैं। ड्रॉसेरा (Drosera), डायोनिया (Dionea), यूट्रीकुलेरिया (Utricularia) तथा नेपेन्थीस (Nepenthes) आदि कुछ कीटभक्षी पौधे हैं।



चित्र: कीट भक्षी पादप

2. प्रतिजीविता (Antibiosis)— इसमें जीव कुछ रासायनिक पदार्थ (chemical substance) स्रावित करता है अथवा उपापचयी क्रियाओं के माध्यम से पर्यावरण को अन्य जीवों के अनुकूल नहीं रहने देता है। इसे प्रतिजीविता (antibiosis) कहते हैं। इसमें दोनों में से किसी भी जीव को लाभ नहीं पहुँचता है।

अनेक खरपतवार (weeds) विषैले पदार्थों के स्रावण से अन्य पौधों की वृद्धि को रोकती है। काले अखरोट (Juglans nigra) की जड़े तथा छिलके एक रासायनिक पदार्थ जगलोन (Juglone) का स्रावण करती हैं ये पदार्थ सेव, टमाटर तथा अल्फा-अल्फा पौधे के लिए हानिकारक है।

5. स्पर्धा (Competitions)– अनेक बार पौधे अत्यन्त निकट उगते हैं जिससे प्रकाश, स्थान, खनिज, भोजन और पानी आदि संसाधनों की अपर्याप्त उपलब्धता से जीवों में स्पर्धा को जन्म देती हैं। यह स्पर्धा एक ही जाति के जीवों के मध्य तथा भिन्न प्रजातियों के जीवों के मध्य हो सकती है, इन्हें क्रमश: अतराजातीय (interaspecific) तथा अन्तरजातीय (inter specific) स्पर्धा कहते हैं। खेतों में उगी खरपतवार स्पर्धा का एक उत्तम उदाहरण है। यदि इनके जड़ों ने उखाड़ा जाये तो उगाए गए पौधों की संख्या कम हो सकती है। अनेक खरपतवार (weeds) भारत में जड़े जमा चुकी हैं, इनमें लेन्टाना (Lantana), यूरोटोरियम तथा पार्थीनियम (Hathenium) प्रमुख हैं।

इसी प्रकार वायवीय भागों (aerial parts) में सूर्य के प्रकाश के लिए स्पर्धा रहती है। वनों में विभिन्न ऊँचाई की वनस्पति परतें (stratas) बना लेती है। इस प्रकार की व्यवस्था जिसमें पौधे विभिन्न स्तरों में उगकर स्पर्धा से बचते हैं, स्पर्धातमक निष्कासन का सिद्धान्त (Principle of Competitive Exclusion) कहलाता है।


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