Botany वनस्पति विज्ञान

प्रश्न 49 : शस्य जैव प्रौद्योगिकी की प्रमुख उपलब्धियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिये।

उत्तर—फसल जैव-प्रौद्योगिकी की उपलब्धियाँ -

बायोटेक्नोलॉजी ने मानव कल्याण से संबंधित प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है। उद्योग, उत्पादन एवं उत्पादकता, व्यापार, देश की आर्थिक स्थिति, रोजगार, मानव स्वास्थ्य, कृषि, वानिकी, ऊर्जा, खाद्य उद्योगों एवं एल्कोहल व विएल्कोहलीय पेय पदार्थों के निर्माण में बायोटेक्नोलॉजी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वैज्ञानिकों का मत है कि 21 वीं शताब्दी बायोटेक्नोलॉजी की शताब्दी होगी।

विभिन्न क्षेत्रों को बायोटेक्नोलॉजी ने अत्यधिक प्रभावित किया है। जो निम्न हैं-

(1) मानव स्वास्थ (Human health)

(2) जंतु स्वास्थ (Animal health)

(3) कृषि (Agriculture)

(4) वानिकी (Forestry)

(5) रसायन एवं जैव रसायन (Chemical and Biochemical)

(6) फूड प्रोसेसिंग एवं पेय पदार्थ (Food processing and Beverages)

(7) डेरी एवं पशुपालन (Dairy and Animal Husbandry)

(8) औषधियाँ (Medicines)

(9) उद्यान कृषि एवं पुष्प कृषि (Horticulture and Floriculture)

(10) ईधन एवं नवकरणीय ऊर्जा (Fuel and Renewable Energy)

(11) मत्स्य पालन एवं जल कृषि (Fisheries and Aquaculture)

जैव प्रौद्योगिकी के महत्व- जैव प्रौद्योगिकी ने मानव जीवन के लगभग सभी पहलुओं को प्रभावित किया है। जैव प्रौद्योगिकी के महत्त्व का अध्ययन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है

(1) कायिक क्लोनीय विविधता- पादप ऊतक तथा कोशिका संवर्धन में कोशिका विभाजन तीव्र गति से होता है। कई अन्तर्जात तथा बहिर्जात कारकों के कारण कायिक क्लोनीय विविधता उत्पन्न हो जाती है। इस तरह वर्णित पौधों को परिवर्त कहते हैं। कई फसलों में उत्पन्न गुणों वाले परिवर्ती का वरण किया गया है, जैसे-आलू, चुकन्दर, गेहूँ, तम्बाकू, गन्ना, चावल, जौ आदि।

(2) कायिक संकरण तथा आनुवांशिक रूपान्तरण- कायिक संकरण तथा आनुवांशिक रूपान्तरण द्वारा उच्च दर पर उन्नत किस्मों का विकास किया जाता है। इस विधि से सीधे या प्लाज्ज्मिड द्वारा कई जीनों का स्थानान्तरण कर रूपान्तरित पौधे तैयार किये गये हैं। जिनके कारण फसलों की गुणवत्ता तथा मात्रात्मक बढ़ोतरी हुई। इस विधि से निम्न में अन्तर स्पीसीज तथा अन्तर जेनेरिक संकर उत्पन्न किये गये हैं जैसे मक्का × जई, गाजर × तम्बाकू

(3) आणविक खेती- पौधों में विशिष्ट प्रकार के अणुओं जैसे रूपान्तारित स्टार्च, कीमती औधोगिकी तेल, प्लास्टिक, औषधीय दवाइयाँ एवं विकर के जीन का स्थानान्तरण करने पर ये पौधे वंश दर वंश इन अणुओं का उत्पादन करने लगते हैं। अतः इन अणुओं को कारखाने में न बनाकर पौधों द्वारा तैयार किया जाता है इसे आणविक खेती कहते हैं।

(4) सूक्ष्म प्रवर्धन- भारत एक समउष्णीय कटिबन्धीय प्रदेश है, जिसमें बागवानी, सजावटी तथा औषधीय पौधों की बहुत विविधता है। परन्तु किसानों को अच्छी किस्म के पौधे उपलब्ध नहीं हैं। शीतोष्ण फलदायी फसलों में स्ट्रोबेरी का सूक्ष्म प्रवर्धन सबसे पहले 1974 में किया गया। अब कई फसलों का सूक्ष्म प्रवर्धन किया जा रहा है। यह कार्य दो प्रकार से किया जाता है। जैसे- आनार, अंगूर, अमरूद, पपीता आदि। दूसरा तरीका उन फलदार पौधों के लिए किया जाता है जिनका अपना मूल तंत्र मजबूत नहीं होता है।

(5) विशिष्ट रसायनों का उत्पादन- पादप ऊतक संवर्धन में द्वितीय उपापचयों के उत्पादन की विधि बहुत विकसित हो चुकी है। यह एक गैर पारम्परिक विधि है, जिसका अन्य प्राकृतिक साधनों द्वारा यौगिकों की प्राप्ति कठिन होने पर या रासायनिक संश्लेषण द्वारा सम्भव नहीं होने पर उपयोग में लाई जाती है। उदाहरणार्थ-टैक्सॉल, विक्रिस्टीन, डीजॉक्सिन इत्यादि की भारी माँग एवं प्राकृतिक साधनों से कम आपूर्ति इस प्रकार महत्त्वपूर्ण द्वितीय उपापचयजों का उत्पादन जैव प्रौद्योगिकी द्वारा किया जा सकता है।

(6) जीवों के उत्पाद- इस तकनीक द्वारा परजीनी जन्तुओं का विकास सम्भव हो सका है, जो वृद्धि हार्मोन्स आदि का उत्पादन करते हैं। इस प्रकार के उत्पाद अन्यथा मृत जानवरों के अंगों से प्राप्त किये जाते थे, जिनसे कई दूसरी कठिनाइयाँ आती थीं। इन सुविधाओं के कारण मानव जीवन अधिक निरोगी एवं उन्नत हो सका है।

(7) चिकित्सीय महत्व- पुनर्योगज डी.एन.ए. तकनीक द्वारा किसी भी जीव से मनचाही उपयोगी जीन को किसी भी जीव में स्थानान्तरित कर, उन जीवों में अभूतपूर्व क्षमताओं का विकास किया जाता है। जैसे मानव इन्सुलिन कोडित करने वाले जीन का उत्पादन किया गया। जीवाणु द्वारा उत्पादित इन्सुलिन का उपयोग मानव के लिए मधुमेह बीमारी में किया जा रहा है। इस तकनीक के प्रयोग से चिकित्सा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। अन्य उदाहरण है- कोलेरा टॉक्सिन का जीन का केल में स्थानान्तरण एवं कई प्रकार के टीकों का निर्माण।

(8) उन्नत फसलों का विकास- पुनर्योजन डी.एन.ए. तकनीक द्वारा फसलों की उन उन्नत किस्मों का विकास सम्भव हो सका है, जो पारम्परिक पादप प्रजनन द्वारा असम्भव था जैसे- (i) जीवाणुओं में मिलने वाली कीट रोधिता की जीन, जो एक विशेष आविष का निर्माण करती है। (Bt-gene, Bt-toxin) का तम्बाकू एवं कपास के पौधों में स्थानान्तरण द्वार कीट रोधिता उत्पन्न करना।

(ii) जीवाणु में मिलने वाली ग्लायोफोसाट प्रतिरोधी जीन का जीवाणु से पौधों में स्थानान्तरण कर खरपतवारनाशक प्रतिरोधिता उत्पन्न करना। इस प्रकार जीवाणुओं कवकों एवं पौधों में जीन स्थानान्तरण कर फसलों की नई उन्नत किस्मों का विकास किया गया है।

यदि एक पादप कोशिका को उपयुक्त माध्यम से रख दिया जाता है तो वह पुनः अपने प्रजनक (progenitor) के रूप में कार्य करने लगती है। यदि संवर्धित कोशिका का आवश्यक पोषण एवं उचित वृद्धि नियंत्रक (growth regulators) या वृद्धि हार्मोन्स उपलब्ध कराये जाए तो वह पुनः एक नया पादपक (Plantlet) पुनर्जनित (regnerate) कर सकती है। पादप की प्रत्येक कोशिका एक नए पादपक बनाने में सक्षम होती है परन्तु जन्तुओं की कोशिकाओं में सम्पूर्ण जन्तु पुनर्जनित करने में सक्षम नहीं होती है अर्थात् पादप की किसी भी जीवित कोशिका में युग्मनज (2n) के समान विभाजित, विभेदित तथा परिवर्धित होकर पुनः नये पादपक पुनर्जनित करने की क्षमता को पूर्णशक्ता (Totipotency) कहते हैं।

ऊतक संवर्धन अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि पौधों की सभी कोशिकाएँ पूर्णशक्त नहीं होती हैं। अत्यधिक विशिष्ट कोशिकाएँ जिनका विकास किन्हीं विशेष रासायनिक या भौतिक कारकों द्वारा अभिबांधित हो जाता है तथा उनमें प्रायः पुनर्विभेदन की क्षमता नहीं होती है। उदाहरण जाइलम वाहिकाएँ (xylem vessels) एवं वाहिनियों (tracheids) में, जो कि परिपक्व अवस्था में मृत होती है। अथवा फ्लोएम के परिपक्व चालनी तत्व (sieve elements) जिनमें केन्द्रक का अभाव होता है, पूर्णशक्त नहीं होती है।

कोशिका की पूर्णशक्तता से यह स्पष्ट है कि पादप कोशिकाएँ अपने आनुवांशिक गुणों को बनाये रखती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि पादप कोशिका विभेदन या किसी भी अवस्था में अपनी सभी आनुवांशिक सूचनाओं का पूर्णरूप से प्रयोग या अभिव्यक्त करें।

जब किसी कोशिका को उसके ऊतक से पृथक कर दिया जाता हैं, तब उस कोशिका के विकास को नियंत्रित करने वाले कारकों का प्रभाव उस कोशिका पर समाप्त हो जाता है तथा कोशिका अपनी युग्मनजी प्रावस्था में आ जाती है। अब इस कोशिका का आनुवांशिक लंक्षण पुनः नये पौधे के विकास करने में सक्षम होता है।

पूर्णशक्तता को प्रदर्शित करने के लिए नीचे प्रयोग दिया गया है जिसमें यह स्पष्ट है कि कोशिका का व्यवहार किसी ऊतक में एवं स्वतंत्र रूप से हाने पर भिन्न होता है।

स्टीवार्ड का प्रयोग-एफ.सी.स्टीवार्ड (F.C. Steward, 1964) एवं उनके सहयोगियों ने कैलस से विलगित ऊतक कोशिकाओं का संवर्धन माध्यम से विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने गाजर (डॉकस केरोटा Daucus carota) के द्वितीयक फ्लोएम से ऊतक को वियुक्त करके उसे पोषक माध्यम में रखा। फ्लोएम के कार्योतक की वृद्धि के साथ-साथ निलम्बन संवर्धन (suspension culture) में कई प्रकार की कोशिकाओं में विभाजन एवं वृद्धि से एक ही प्रकार की कोशिकाओं के समूह बनते हैं। यह समूह वृद्धि दर कर भ्रूणाभ बनाते हैं। यह भ्रूणाभ (embryoids) परिपक्व होने पर गाजर के नये पौधे में विकसित होते हैं।



चित्र- कोशिकीय (cellualr totipotency): पूर्णशक्तताः गाजर में कोशिकीय पूर्णशक्तता का प्रदर्शन (स्टीवार्ड काप्रयोग)

स्टीवार्ड एवं उनके सहयोगियों के अनुसार यद्यपि गाजर के द्वितीयक फ्लोएम की कोशिकाएँ पूर्णशक्त होती हैं परन्तु इनका अनुमान तभी लगाया जा सकता है जबकि इन कोशिकाओं को अन्य समीपवर्ती कोशिकाओं से विलगित कर ऐसे वातावरण में रखा जाये भ्रूणकोष के समान हो।


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